बदलाव हो रहा हैं,
किसी न किसी रूप में।
जो रिश्तें कभी छाँव थें,
बदल रहें वो धूप में।।
सब निकलना चाहतें है आगे,
प्रतिस्पर्धा के इस दौर में।
रिश्तें पीछें छुटते जा रहें,
खुशियाँ ढूंढे हम किस ठौर में।।
ऑस नहीं किसी को अब,
इस परायेपन के शहर में।
अपनापन मिलेंगा कहीं,
यें तो बस एक ख़्वाब हैं जहन में।।
ख़ैर ख़्वाब देखनें का हक हैं,
उसे छीना जा सकता नहीं।
वहीं एक ऐसी जगह हैं,
सुकून छिनने वाला कोई आता नहीं।।
यहाँ अपनें ही गम देते हैं,
ये कौंन सा शहर हैं।
ख़ुद की चाह मुक्कमल करने को,
अपनों पर बरसता कहर हैं।।
आँखों में लिए फ़रेब,
घूमते सब शान से हैं।
खुदा तेरी ख़ुदाई छिपी कहाँ,
इंसान यहाँ बस नाम के हैं।।